पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१५६

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है। इसलिये जो सचमुच भक्ति करना चाहे उसे तर्क को पास तक न फटकने देना चाहिए। पवित्रता स्त्री और भक्त के लक्षण समान ही हैं। स्त्री कैसी भी रूपवती हो, गुणवती हो किंतु यदि उनके पति को जरा सा भी संदेह हो जाय कि यह पर पुरूष को भजती है तो वह उसे लातों मारकर निकाल देता है, जान लेने को, नाक काटने को तैयार होता है और तरह जो एक समय प्राणों से भी प्यारी थी उसका वह जानी दुश्मन बन जाता है। बस इस कारण भक्त के अंत:करण की नपाकर उसमें सं द्विधा, तर्क और आनाचार निकालने के लिये वह भी उसी तरह कसौटी पर बारंबार हार कसा जाता है। उसके शोक संताप की उसी तयह बिलकुल पर्वाह नहीं की जाती जिस तरह सदा का दुःख मेटने की इच्छा से पुत्र का फोड़ा चिराते समय माता बेदर्द हो जाती है।"

"बेशक, भक्ति का यही स्वरूप है, किंतु अब जरा नवधा भक्ति का तो निरूपण कर दे। फिर दर्शन का समय आनेवाला है।"

'हाँ अच्छा! श्लोक में नवधा भक्ति कही गई है। उस का अर्थ स्पष्ट है। व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं और सो भी आप जैसे विद्वान् के सामने व्याख्या करना मानों सूर्य को दीपक लेकर दिखलाना है। भगवान् के अवतारों की लीलाएँ जो भागवतादि ग्रंथों में कही गई हैं, उनके भक्तों के जो चरित्र पुराणादि में वर्णित हैं, उन्हें प्रेमपूर्वक सुनना,