(१५१)
इसमें जितने जितने भीतर घुसते जाइए उतना ही गहरापन है। धन्य.........
यों कहकर ज्योंही प्रियानाथ कुछ आगे निरू-
पण करना चाहते थे कि संध्या आरती का टकोरा हुआ।
जब! जब!! जब!!! के जयघोष से वैष्णव मंडली जाति पाँति
का, स्त्री पुरुष का, छोटे बड़े का भेद छोड़कर भातर घुसने
लगी और पंडित प्रियानाथ भी "और दास्य का उदाहरण
हनुमान और आत्मनिवेदन का गोपिकाएँ" कहते हुए
श्रीमुकुंदगयजी के समक्ष हाथ जोड़कर ईश-स्तवन में सूरदासजी
का यह पद गाने लगे --
"शोभित कर नवनीत लिए।
घुटठन चलन रेणु तनु मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन छबि गोरोचल को तिलक दिए।
लट लटकत मानो मुदित मत्त धन माधुरि मदहि पिए॥
कठला कंठ बज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकहु पल यह सुख कहा भयो शत कल्प जिए॥"
"वास्तव में यदि एक क्षण भर के लिये भा इस पद में गाया हुआ श्रीमुकुंदरायजी का यही स्वरूप मन में बस जाय तो बस त्रिलोकी का साम्राज्य भी इस पर वारकर फेंक देना चाहिए, स्वर्र का सुख भी इसके आगे तुच्छ!"
"हाँ महाराज सत्य! परंतु हम जैसे पापी पामरों के
नसीब में यह सुख कहाँ? हाँ हाँ!! बेशक! निःसंदेह!
जो पद में है वही विग्रह में है। हाँ हेखिए महाराज, सच-