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मुच ही मुख पर दधि लिपट रहा है। अहा! देखो तो सही ।
एक कौवा उस सुख की लूटे जा रहा है। भगवान् के मुख
से दधि की जो बूँदें गिरती हैं उन्हें यह काक पक्षी अधर ही
में लेकर अमृत पान कर रहा है। यह कौवा नहीं साक्षात
कागभुशुंडी है। धन्य काक! एक निकृष्ट से भी निकृष्ट,
अधम से भी अधम शरीर धारण करने पर तुम धन्य हो।
तुम्हारे आगे ब्रह्मादिक देवता तुच्छ हैं। आज इससे सिद्ध
हो गया कि जाति पाँति, नीचा और ऊँचा राजा और रंक
सब लौकिक व्यवहार में हैं। परमेश्वर के लिये सब समान
है। जो उनका भक्त वह नीचातिनीच भी सर्वोत्तम और जो
भक्त नहीं वह महाराजाधिराज होने पर श्री तृणवत्, कौवे से
भी गया बीता।"
बस इस तरह का विचार कर श्रीगोपाललालजी के दर्शन के अनंतर वह इस दिन के शेष कामों में प्रवृत्त हो गए।
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