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डिपुटी कलक्टरी करेंग, वकालत करेंगे अथवा कोई सरकारी उहदा
प्राप्त करेंगे।" उनकी यह आशा फलवती हो अथवा न हो,
विशेष कर नहीं भी होती है क्योंकि शिक्षा प्रणाली को दोष से
आजकल अँगरेजी शिक्षित टके के तीन बिक रहे है किंतु उन्हें
जब आशा, ऊँचा पद पाने का लालच, कमाई कर के रुपयों से
घर भर देने की आकांक्षा "पहाड़ खोदकर चूहे निकालने"
प्रवृत्त करती है तब संस्कृत के विद्यार्थी ब्राह्मण पालकों के
लिए कमाई के नाम पर वही ढाक के तीन पात। प्रथम
संस्कृत महासागर को पार करना ही कफिन, "इंद्रायोपि
यस्याति न यशुः शब्दयानिधे:", फिर यदि अच्छे नामी विद्वान्
भी हो गए तो दर्भगा नरेश से एक धोती पा लेने में उनकी
कमाई की इतिकर्त्तव्यता। साहित्याचार्य, ज्योतिषाचार्य,
नैयायिक दर्शनवेत्ता, कर्मकांडी, तंत्रशास्त्री और सर्व शास्त्र-
निष्णात बनकर यदि घ
र गाए अथवा कमाई के लिये विदेश ही
गए तो केवल भिक्षा, दान अथवा कथा-वार्ता के सिवाय
उनकी जीविका नहीं। देशी रजवाड़ों में, देशहितैषी समाजों में
उन्हें कोई पुछनेवाला नहीं। ऐसी दशा में, कष्ट सहकर भी,
भविष्यत में आशा के नाम पर कसम खाने को कुछ न होने
पर भी वे संस्कृत पढ़ने के लिये बीस बीस वर्ष तक सिर तोड़
परिश्रम करते हैं, रूखे सूखे अन्न और फटे पुराने कपड़ों से
गुजर करते हैं। इससे बढ़कर स्वार्थत्याग क्या होगा?
आजकल नए नए प्रबंध से नए नए गुरुकुल खोले जाते हैं