पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१७

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राख हो गया। नाव मे बैठे बैठे इधर उधर की बात चलते चलते मल्लाह गहरे पानी में से रुपया निकाल लाने पर तैयार हुए। पंडितजी के नाहीं करते करते भोला ने अपनी टेंट में से निकालकर एक जयपुरी झाडशाही रुपया पानी में डाला और तुरंत ही गोता लगाकर उसे मल्लाह निकाल लाया। पंडितजी ने इस पर भोंदू मल्लाह की बहुत प्रशंसा की और उसे इनाम देकर प्रसन्न भी कर दिया किंतु भोला को झिड़का अवश्य।

खैर, नाव चलते चलते इनकी दृष्टि एक बार त्रिवेणी-संगम पर खड़ी हुई पताकाओं पर पड़ी तो ये लोग देखकर गद्गद हो गए। इस बार गौड़बोले बोले --

"अहा! कैसी विचित्र छटा है! पंडितजी, ये जा दिखखाई दे रहे हैं, ये पंडों के झंडे हैं, नहीं! तीर्थों के राजा प्रयागराज की विजयपताकाएँ हैं! इस पुण्यतोया के तट पर यात्रियों का कलरव ही उस राजाधिराज का जयघोष है। गंगा, यमुना और सरस्वती का जिस पुण्य स्थल में संगम हुआ है वही उसके राजप्रासाद हैं। त्रिवेणी की लहरें उनके के सैनिक हैं और ऐसे राजा से भयभीत होकर ही इस दुर्ग की गिरिगुहा में यमराज जा छिपा है। जब उसके दूतों की पीरी न चली तब वह स्वयं पापियों को पकड़ने आया था किंतु इस ब्रह्मद्रव में उसका बन्न सा कठोर हृदय भी द्रवीभूत कर डाला। धन्य त्रिवेणी! धन्य तीर्थराज! और धन्य