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अनुसार संसार जब मोहनिद्रा में शयन करता हुआ खुर्राटे
भरता है तब ये तीनों जागते हैं इसलिये "या निशा सर्वभूतानि
तस्यां जागर्ति संयमी" का मानो ज्वलंत उदाहरण हैं। इन
तीनों में एक गुरू और दो शिष्य मालूम होते हैं। गुरुजी का
वय कोई सत्तर अस्सी वर्ष का, एक शिष्य पचास-पचपन साल
का होगा और दूसरे की उमर पच्चीस से अधिक नहीं। तीनों
का शरीर सुडौल, दुर्बल नहीं और तीनों की मुख की शोभा से
उनका तप फूट-फूटकर निकला पड़ता था। तीनों में गुरू का नाम
ब्रह्मानंद, ज्येष्ठ शिष्य का भगवदानंद और कनिष्ठ का पूर्णानंद।
जब इतना ही लिख दिया गया तब पाठकों से पहेली बुझाकर
उन्हें उलझन में झालं रखने और इनका परिचय देने के लिये
कागज रँगने से कोई लाभ नहीं। इसलिये मैं ही बतलाए
देता हूँ कि इनमें से गुरूजी के यद्यपि किसी ने अभी तक दर्शन
नहीं किए थे किंतु बड़ा शिष्य प्रयाग में हमारी यात्रापार्टी को
भागीरथी के परले किनारे पर्णकुटी में और छोटा शिष्य अर्वुद
गिरिशिखर पर प्रियंवदा को दर्शन दे चुका है। यद्यपि ये लोग
घुरहू बाबू को कई बार, कई रूप में "अनेक रूप रूपाय" देख-
कर नहीं पहचान सके, यहाँ तक कि पंडित प्रियानाथ नसीरन
रंडी को प्रियंवदा मानकर धोखा भी खा चुके परंतु आश्चर्य है
कि न मालूम आज इन्होंने केवल एक ही झलक में इन्हें
क्योंकर पहचान लिया। कदाचित् इन महात्माओं के तप का
प्रभाव हो अथवा पार्टी का सौभाग्य।