पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१७१

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अस्तु! सबके सब दर्शनी गुरू के चरण-कमलों में साष्टांग प्रणाम कर पारी पारी से दोनों शिष्यों को हाथ जोड़कर "नमो नारायण" करते हुए बैठ गए। "आओ बाबा, बड़ा अनुग्रह किया!" कहकर गुरूजी ने उन लोगों का आतिथ्य किया। बहुत देर तक ये लोग टकटकी लगाए मौन होकर गुरुजी के मुखकमल को निरखते हुए बैठे रहे। किसी का हियाव न हुआ कि कुछ पूछें। इनमें से पंडित दीनबंधु, पंडित प्रियानाथ और पंडित गौड़बोले, तीनों तीन प्रश्न विचारकर ले गए थे। पूर्णानंद को देखकर प्रियंवदा के मन का वही पुराना भाव, वही स्त्री जाति के जीवन की सर्वोच्च आकांक्षा, सब सुख होने पर भी अंत:करण में छिपी हुई वही वेदना ताजी हो गई। बूढ़ा भगवानदास जिस चिंता कं मारे सूखा जाता था वह काशी आकर कितने ही अंश में मिट चुकी थी, इस कारण दर्शन करने के सिवाय उसे कोई प्रयोजन सिद्ध करना नहीं था। माँ बेटे बिचारे सीधे सादे किसी गिनती में नहीं। बस यही इस पार्टी के हृद्गत भावों की रिपोर्ट है।

जब इन लोगों को बैठे बैठे बहुत देर हो गई तब उकताकर नहीं, क्रोध करके नहीं, क्रोध भी करते तो कर सकते थे क्योंकि इनके आह्निक में विक्षेप पड़ता था, गुरूजी बोले, जिन्होंने इति- हासों और पुराणों का अवलोकन किया है वे स्वीकार करेंगे कि ब्राह्मण जैसे क्रोध में आग हो जाते हैं वैसे क्षमा में पृथ्वी और समुद्र होते हैं। क्रोध बड़े बड़े ऋषि महर्षियों से नहीं