पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१६७)


लागे। "नहीं बाबा इस माई का कोई दोष नहीं। हमारे पास रखने की जगह ही नहीं। नहीं तो हम ही क्यों देते?" कह- कर उन्होंने आश्वासन किया और सब कहने लगे --

"अच्छा, तुम नहीं छेड़ते हो तो मैं ही कहता हूँ। सुनो! मान लो कि आप तीनों विद्वानों में से एक (गौड़बोले की ओर इशारा करके) महाशय प्रारब्ध की परिभाषा पूछने आए हैं। जो लोग उद्योग में सफल हो जाते हैं वे उसे प्रधान और जिनका भाग्य फल जाता है वे प्रारब्ध को मुख्य मानते हैं। जिसे जिसमें फायदा होता है उसी पर उलकी श्रद्धा बढ़ती है। हैं यह अंधेरी कोठरी। शास्त्र का सिद्धांत ता आप जैसे पंडितों से क्या कहूँ? हाँ! मेरा अनुभव कहता है कि प्रारब्ध की सहायता से ही उद्योग हो सकता है और उद्योग ही नसीब को बनानेवाला है। जीव पर पूर्व जन्म में उद्योग करने से जो संस्कार पैदा होते है वे ही हमारा नसीब है किंतु यदि केवल प्रारब्ध ही मुख्य मान ली जाय तो सृष्टि के आरंम्भ में जीव जब उत्पन्न हुआ तब उसके लिये नसीब कहाँ था। इसलिये जिधर उसकी प्रवृत्ति हुई वही उसका उद्योग और उस उद्योग का परिणाम ही प्रारब्ध है। शारीरांत होने पर धर्मराज संचित और क्रियमाण कर्मों का लेखा लगाकर प्राणी को स्वर्ग और नरक देते हैं।"

"तब तो महाराज, परमेश्वर कोई वस्तु नहीं।"

"राम राम! हर हर! ऐसा कभी न कहो भगवान् कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्त्तु समर्थ है। वह वास्तव में हमें नट-