पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१७५

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मर्कवत् नचाता है। उसके लिये हम कठपुतलियां हैं। उसने कर्म से हमको स्वतंत्र किया है और फल उसके हाथ में है। आकाश में उड़कर हवा के झोंके से पतंग जैसे इधर उधर भटकने पर भी डोरी उड़ानेवाले के हाथ में है, वैसे ही हम उसके हाथ की पतंग है। हवा के झोंके पाप पुण्य के संस्कार है, दूसरे की पतंग से, आँधी बबूले से अथवा बनावट की खराबी से फट जाना, टूट पड़ना उन संस्कारों के फल हैं। हम यदि प्राकाश में उड़ाने के बाद उसे उतार लेने में समर्थ न हों तो कसर हमारी है। किंतु परमेश्वर यावत् त्रुटियों से रहित है, परिपूर्णत्तम है।"

इतने ही में गंगाजी में नाव में बैठे हुए कितने ही यात्रियों में से वंशी की आवाज आई। कानों पर भानक पड़ते ही पंडित प्रियानाथ को भगवान् मुरली मनोहर की झांकी याद आ गई। वह बोले --

"महाराज, इस शुष्क विषय को जाने दीजिए। और कोई बात छेड़िए!"

"अच्छा तो आप शायद भक्ति की व्याख्या सुनना चाहते हैं परंतु परसों आपका (दीनबंधु के लिये) इनसे जो संभाषण हुआ उससे बढ़कर मैं क्या कहूँ? वही इसका निचोड़ है। यदि आपको विशेष जानना हो तो श्रीमद्भागवत से बढ़कर कोई इसका शिक्षक नहीं। उसी का मनन कीजिए। उसमें केवल भक्ति का ही निरूपण हो सो नहीं। उसमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य