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कर्त्तव्यपरायण बनाने के लिये कौरव जैसे प्रबल शत्रुओं का संहार करवाया है, और विराट् दर्शन से दिखला दिया है कि इसका कर्ता मैं और तू केवल निमित्त है।"

"हाँ महाराज, इतने से में तीनों के प्रश्नों का सूत्र रूप से सार आ गया। परंतु महाराज, आजकल हम सांसारिक जीवों की बड़ी दुर्दशा है। गृहस्थाश्रम का निर्वाह महा कठिन है।"

"बाबा, गृहस्थों में तो हजारों अच्छे भी मिलेंगे। दुनिया- दारी के बोझे से दबे रहकर वे कुछ करते कराते भी हैं किंतु साधु रूप धारी नर-पिशाचों की वास्तव में दुर्दशा है। उनमें भले विरले और बुरे बहुत हैं। जब पेट और उन्हें खाने को मिल जाता है तब बुराई ही बुराई सूझती है। जिनका भिक्षा से गुजारा होता है वे तो बिचारे फिर भी कुछ हैं किंतु देखो ना इन लाखों रुपए कं धन सम्पत्तिवाले मठाधीशों को! इनमें दाताओं के उद्देश्य के अनुसार परोपकार करनेवाले कितने हैं ? हाँ यदि वेश्या नचानेवालों को ढूँढ़ने जाओ तो दस बीस मिल सकते हैं। परमेश्वर इन्हें अब भी सुबुद्धि दे। अब भी ये लोग भगवतसेवा में, विद्या-प्रचार में और परोपकार में अपना तन मन धन अर्पण करें। भैया, दुनिया का उपकार जितना एक स्वार्थत्यागी साधु से हो सकता है उतना सौ गृहस्थों से नहीं क्योंकि उन बिचारों को कुटुंब-पालन से फुरसत नहीं और हमें ब्रह्मविचार और परोपकार के सिवाय कुछ काम नहीं।"