पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१७८

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इस तरह बहुत देर तक इधर उधर की बातें होती रहीं, बीच बीच में वही कभी ज्ञान, कभी वैराग्य और कभी भक्ति का निरूपण होता रहा और ऐसे गुरु महाराज का बहुत सा समय लग जाने पर लज्जित होते होते उन्हें साष्टांग दंडवत प्रणाम करते, उनसे शुभाशिष लेते लेते थे लेग लौट आए। छोटे चेले पूर्णानंद की जबानी पंडित प्रियानाथ को मालूम हो गया इन्होंने रूप रंग से भी जान लिया कि भगवादानंद ही कांता- नाथ के श्वसुर हैं और चातुर्मास्य भर उन्होंने मौन व्रत धारण किया है। अनेक मौनी बाबा जबान न हिलाने पर भी, सिर हिलाकर, हाथ पैर हिलाकर और आँखें नचाकर अपने मन का भाव दूसरों को समझा देते हैं, जो चाहे तो मांग लेते हैं और कितने ही "गूँ गूँ गूँ गूँ" करके अर्द्धस्फुट शब्दों से अपना काम निकाल लेते हैं किंतु यह बिलकुल चुप, निश्चेष्ट बैठे रहते हैं। ऐसे बैठे रहते हैं मानो समाधि चढ़ाने का अभ्यास करते हों। अस्तु प्रियंवदा से भी मौका पाकर नेत्रों के संकेत से पति को जतलाए बिना न रहा गया कि "यह पूणानंद वही साधु हैं जिन्होंने बूढ़ी माँ के सामने मुझसे कहा था कि तू काशी आकर यदि हमारे गुरू दर्शन करेगी तो अवश्य तेरी मनोकामना सिद्ध होगी। बस महात्मा के दिए हुए इस प्रसाद से ही मनोकामना की सिद्धि है।"

तीनों पंडितों का उत्तर से जैसे संतोष हुआ वैसे उन्हें आश्चर्य भी कम नहीं हुआ। इस विषय में तीनों में परस्पर