पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१८

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यात्री!!! और वे जन धन्यातिधन्य हैं जो विपत्ति पर विपत्ति सहकर ही श्रद्धा के साथ यहाँ स्नान कर रहे हैं।"

"वास्तव में श्रद्धा ही मुक्ति की माता है, भक्ति ही उसकी सहचरी है और भगवान् भी उसके वशवर्ती हैं। इस विमलतोया, कलिमलनाशिनी के पुण्य द्रव से स्नान करने के पूर्व ही वह विपत्ति सोने की नाई तपाकर जीव का निर्मल कर देती है। भगवती के तट का त्रिविध वयार उसके बाह्य विकारों को सुखा देता है और भगवती के स्नान और पान से दैहिक, दैविक और भौतिक ताप, पापों के पुंजों के लिए हुए प्राणी का पिंड छोड़कर उसी तरह भाग जाते हैं जिस तरह वनराज सिंह के गर्जन का श्रवश करके मेषों का वृंद। वास्तव में आज हमारे कृतार्थ होने का शुभ दिवस है। भगवान् यदि कृपा करें ते गंगातट पर निवास दें।"

"हाँ सत्य है! हाँ सच है!" कहते हुए मल्लाहों को मजदूरी देकर सब लोग नाव पर से उतरे। कुछ आगे बढ़कर किले के पास से इन्होंने इक्के किराए करके घर का रास्ता लिया। वहाँ पहुँचकर ज्यों ही ये लोग सुस्ताने लगे, गुरूजी के आदमी ने कांतानाथ का नाम पूछकर उन्हें एक पर्चा और एक तार का लिफाफा दिया। पढ़कर यह बिलकुल निश्चेष्ट से हो गए। देर तक इनके मुख में से एक शब्द तक न निकला। "हाय प्रारब्ध!!" कहकर यह कमर पकड़कर बैठ गए। इनके चेहरे के चढ़ाव उतार से चाहे कोई यह