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प्रकरण--४१
व्यापार पर प्रकाश

पंडित, पंडितायिन, गौड़बोले, बूढ़ा, बुढ़िया और लड़का ये सब काशी से गया के लिये रेल द्वारा बिदा हो गए। पंडितायिन चाहे महात्मा का प्रसाद पाकर आनंद के मारे फूली अंग नहीं समाती थीं, चाहे प्रसव-वेदना के भय से कई बार चिंता भी बहुत होती थी और चाहे "जिसने दिया है वही रक्षा भी करेगा।" यों कहकर अपना मन भी समझा लिया करती थीं किंतु पंडिल प्रियानाथ को न तो इस बात की आशा होने का हर्ष ही था और न घुरहू से दारुण दुःख उठाने का शोक। जब प्रियंवदा ने इशारे से आशा जतलाई तब -- "होगा! दुनिया के धंधे हैं। अभी से क्या ठिकाना है? न भी हो, तेरा भ्रम ही निकले। और हो भी तो जीवित रहे। जीकर कुपूती करे। बड़ों का नाम डुबोबे! क्या भरोसा?" कहकर उसके हर्ष को दबा दिया। जब उसने प्रसव-वेदना का भय याद करके अपने मन की घबराहट बत- लाई तब "सर्वत्र, सर्वदा रक्षा करनेवाला परमात्मा है। अभी से घबड़ा घबड़ाकर कहीं अपना शरीर न सुखा डालना!" कहते हुए उसको संतुष्ट किया और जब वह घुरहू के अत्याचारों को याद करके रोने लगी तब -- "बावली अब क्यों घबराती