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लाभ में तो, भगवान् न करे, विघ्न भी पड़ सकता है किंतु मेरा लाभ चिरस्थायी है, अमिट है। उसे न कोई चुरा सकता है और न छीन सकता"

"सो क्या? कहो तो? आज तो बड़ी पहेली बुझा रहे हो।"

"भगवान् शंकर के दर्शनों का, भगवती भागीरथो के स्नान का और पंडितजी के, महात्मा के आशीर्वाद का अहा! काशी में आकर भी बड़ा ही आनंद रहा। यह आनंद अलौ- किक है, स्वर्गीय है, वर्णनातीत है। यदि भक्ति का साधन हो सके तो स्वर्ग भी इसके आगे तुच्छ है। आँखों के सामने चित्र मात्र खड़ा हो जाना चाहिए। अपने आपको भूल जाना चाहिए। बस आत्म-विस्मृति में ही लक्ष्य की प्राप्ति है।"

"अच्छा, गयाजी आ पहँचे। चलिए। उतरिए।" कहकर प्रेम-विह्वल भक्ति-मग्न पति को प्रियंवदा ने चिताया और कुलियों के माथे बोझा रखवाकर गाड़ियों में सवार हो टिकने की जगह हमारी यात्रा-पार्टी जा पहुँची। काशी और गया के बीच में केवल एक बात के सिवाय कोई उल्लेख करने योग्य घटना नहीं हुई। वह भी कोई विशेष आवश्यक नहीं किंतु संभव है कि यदि उसे न प्रकाशित किया जाय तो लोग कह उठें कि पंडितजी एक तीर्थ छोड़ गए।

खैर! ये लोग बीच में उतरकर पुनःपुना गए। गया श्राद्ध के लिये जानेवालों को जब पुनःपुना में उतरकर अवश्य श्राद्ध करना पड़ता है तब ये भी उतरे तो आश्चर्य क्या?