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तो क्या और चौका छू गया तो क्या! झूठे भी परले सिरे के।
एक चीज का मूल्य १० रूपया बतलाया। ग्राहक से एक
बार दो बार दस बार खरीदने का आग्रह किया, उसने यदि
नाहीं की तो उसकी कुछ न सुनी। उसने मदि वहाँ से उठा
देना चाहा तो उठे कौन? अंत में उसने झुँझलाकर उस
चीज का डेढ़ रुपया कह दिया क्योंकि बेचनेवाला कुछ न कुछ
कीमत सुने बिना टलनेवाला नहीं। लाचार यात्री को अपना
पिंड छुड़ाने के लिये कुछ कहना पड़ा और बेचनेवाला थोड़ी सी,
भूठमूठ आना कानी दिखाकर डेढ़ में दे गया, किंतु सँभाला तो
उसमें बारह आने का माल। बस एक बार ठगाकर पंडितजी
को शिक्षा मिली तब से इन्होंने वहाँ चीज खरीदने की कसम
खाई और जोश में आकर कह भी दिया कि "ऐसे ऐसे बेईमान
देशशत्रुओं की बदौलत भारतवासी अन्न बिना तरसते हैं, यहाँ
का व्यापार धूल में मिल रहा है।" वह फिर कहने लगे --
"बेईमानी का भी कहीं ठिकाना है? विचारे गया को ही
क्या दोष दें? देश भर बेईमानी से भर गया है। ठगों ने,
मुर्खों ने और स्वार्थियों ने प्रसिद्ध कर दिया है कि झूठ बोले
बिना व्यापार हो ही नहीं सकता। ऐसे पुराने घाघों को ही
क्या कहा जाय, स्वदेशी के नाम से क्या कम बेईमानी होती
है। देश के दुर्भाग्य से ऐसे अनेक नर-पिशाच विद्यमान हैं
जो स्वदेशी की दुहाई देकर विदेशी चीजों से प्रजा को ठगते हैं।
विलायती घृणित, अपवित्र और अशुद्ध चीनी देशी के नाम से