पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/१९०

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यदि इनकी संख्या इतनी अधिक न होती तो छप्पन के दारूण दुर्भिक्ष में गवर्मेंट के कृपापूर्वक स्थापित किए हुए अकाल पीड़ा से प्रजा की रक्षा करने के कामों पर एक करोड़ आदमी न टूट पड़ते, छप्पन के अकाल में लाखों आदमी अपने प्यारे प्राणों को क्षुधा की आग में होमकर पृथ्वी का भार न उतार देते। भारत में ९० प्रति सैकड़ा किसान हैं और प्रायः इन सबकी यही दुर्दशा है। खैर इनका ती अकाल के समय गवर्मेंट की सहायता से पेट पालने का हियाव भी हो गया है परंतु मुशकिल तो औसत दर्जे के आदमियों का है। वे न तो भीख ही मॉग सकते हैं और न उनकी इनी गिनी कमाई से उनके कुटुंब का पालन होता है। बत्तीस करोड़ संख्या में एक करोड़ परदेशी और एक करोड़ खुशहाल भारतवासियों को छोड़कर जिधर नजर डालिए उधर इसी तरह के आदमी अधिक दिखाई देते हैं। इसी लिये कहना चाहिए कि यहाँ कोई पेशेवर भिखारी हैं, कोई जरा सी आफत आने से अथवा आते ही भिखारी बन गए हैं और कोई दरिद्रता की चक्की में दिन रात पिसे जाने पर भी मोछों में चावल लगाकर अपनी दुर्दशा को लोकलज्जा से छिपाते हैं।"

"आपने जो कुछ कहा वह धन की दरिद्रता का लेखा है। संख्या में चाहे कहीं न्यूनाधिक हो परंतु लेखा खासा तैयार हो गया। परंतु हाँ इतना अवश्य है कि केवल धन की दरिद्रता से देश कंगाल नहीं हो सकता। इस दरिद्रता को दूर करने के