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पंडित जी उन लोगों में से नहीं थे जो श्राद्ध करने में भी घुड़दौड़ खेलें अथवा डाक गाड़ी दौड़ा है। हजारों आदमी सैकड़ों ही रुपया रेलवालों को देकर यहाँ आते हैं और कुछ किया कुछ न किया करके श्राद्ध को सरपट दौड़ा- कर भागे हुए आगे चले जाते हैं। एक दिन में गया श्राद्ध समाप्त, जोर मारा तो तीन दिवस और जो यहाँ सात दिन ठहर गए तो मानों कमाल कर दिया। अपने पूर्व पुरुषों का अहसान के बोझे से लाद दिया। किंतु नहीं। पंडित जी ने ठीक त्रिपक्षी, सत्रह दिनों में शास्त्रविधि से सांगोपांग गया श्राद्ध किया। यहाँ श्राद्ध करने के लिये जो स्थान नियत है उन्हें वेदियाँ कहते हैं। फल्गू नदी में, विष्णुपद में, उसके निकटवर्ती विशाल भवन में, प्रेतशिला पर, बोध गया में और अक्षयवट पर श्राद्ध करना होता है। गुरु जी के सुफल बोलने का यही स्थान है। पंडित जो ने सब ही वेदियों पर पृथक् पृथक् भक्तिपूर्वक श्राद्ध किया। और किया तो आश्चर्य भी क्या? उनके जैसा धार्मिक भी न करे तो करे कौन!

हाँ! भीड़ की धक्कामुक्का में, यात्रियों की ठसाठस के मारे जब श्राद्ध-स्थल पर तिल रखने की भी जगह न मिले और जब गया तीर्थ नरमुंडों से भर जाय तब श्राद्ध करने में श्रद्धा न रहे तो आश्चर्य नहीं। श्रद्धा ही से जब श्राद्ध है तब जो कुछ करना उसे श्रद्धापूर्वक करना। इस सिद्धांत से पंडित जी ने आश्विन कृष्णपक्ष में महालय का अवसर अवश्य बचा लिया।