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जहाँ वह जाते है छाया की नाई साथ रहती है। श्राद्ध
संपादन करने में दोनो का काम बँटा हुआ है। दोनों ही
अपने अपने कार्य पर डटे हुए हैं। शास्त्रीय कार्य से निवृत्त
होकर केवल आत्मा को भाड़ा देने के लिये पंडित जी बाजार
से भुन्यन्न, हविष्याल, खोजकर लाते हैं और ऐसे मोटे झोटे
पदार्थों से बढ़िया बढ़िया सामग्री तैयार करके प्रियंवदा दिखला
देती है कि "सैव साध्वी सुभक्तश्त्र सुस्नेह:, सरसोज्ज्वलः;
पाक:संजायते यस्याः करादव्युदरादपि" -- इस लोकोक्ति के अनु-सार हाथ के बनाए पाक की बानगी तो आप देख ही रहे हैं और उदर के
पाक की बानगी देखने के लिये अभी नौ महीने
तक राह देखते रहिए। इस तरह पंडित जी जब अपनी
गृहिणी को साथ लिए हुए विधि संपादन में दत्तचित्त हैं तब
विचारा गौड़बोले लाचार है। उसके स्री नहीं, पुत्र नहीं और
आशा तक नहीं। शास्त्रीय कार्य संपादन करने में जहाँ
अर्धांगिनी की अपेक्षा होती है वहाँ अभाव में कुश की गृहिणी
बनाकर काम निकाल लेने की आज्ञा है किंतु यह केवल दस्तूर
पूरा करना ही है। यदि चित्र लिखित लड्डू जलेबी पूरी कचौड़ी
और हलुवा मोहनभोग दर्शक का पेट भर सकते हों, यदि उन्हें
देखते हो डकारें आने लगें तो खैर कुश की गृहिणी ही सही।
परंतु गौड़बोले इस बात से असंतुष्ट नहीं है। पंडित पंडितायिन
की जोड़ी देखकर उसका मन कुढ़ता हो सो नहीं। वह अंत:-
करण से आशीर्वाद देता है कि "भगवान करे यह जोड़ी चिरं-