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पिता के चित्र लिखकर मन ही मन उन्हें दर्शन देने के लिये प्रत्यक्ष ला खड़े किए हों तो कुछ आश्चर्य नहीं, क्योंकि उनकी विचारशक्ति उनका मानसिक बज वर्षों के अभ्यास से बहुत ही बढ़ा हुआ था, उनकी "विल पावर" साधारण न थी और जैसी थी उमाका पता प्यारे पाठक गत प्रकरणों में पा चुके हैं। किंतु प्रयाग की तरह यहाँ भी एक अद्भुत घटना प्रयाग में पिंड प्रदान करते समय पाठकों ने जब इन्हें देखा तब उन्हें अवश्य बोध हुआ था कि पंडित जी नेत्र मूँद- कर, मन की आँखो से मानों किसी दूर के पदार्थ को देख रहे है। यहाँ प्रेतशिला पर श्राद्ध करके जब पंडित जी पिंड प्रदान करने लगे तब एकाएक इनके कानों में भनक आई -- "बेटा चिरं- जीवी रहो।" इन्होंने आखें पसारकर चारों ओर देखा तो इनके साथियों के सिवाय कोई आदमी नहीं। इन्होंने सब से पूछा कि "बेटा चिरंजीवी रहो" का कहनेवाला कौन था?" तो सबके सब ने अपने अपने कानों पर हाथ धरकर उसके सुनने से भी इनकार किया। बस "होगा! यों ही मुझे कुछ वहम सा हो गया था।" कहकर इन्होंने बात टाल दी किंतु जो बात इनके हृदय में एक बार बैठ गई थी उसका निकलना कठिन था। खैर! दूसरी बार की घटना इससे भी बढ़कर हुई। जब विष्णुपद पर श्राद्ध करते हुए पिंड भेट करने का अवसर आया इन्होंने पिता पितामहादि के माता- पितामही के, मातामह प्रमातामहादि के पिंड दिए, चचा, ताऊ,

आ० हिं० -- १३