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है और यात्रियों को आराम देने के लिये एक धर्मशाला बनवा
दी है किंतु यह ऐसे कामों में एक पाई देनेवाले नहीं। वह
जब इन्हें समझाता है तब यह उसे झिड़क देते हैं, गाली देते
है और मार देते हैं।
अस्तु, पालकी पर सवार होकर गुरूजी महाराज अक्षय-
वट पर पहुँचे और ऐसे समय पर गए जिससे इन्हें वहाँ बैठे
न रहना पड़े क्योंकि उस दिन इनके यहाँ पहलवानों का दंगल
होनेवाला था और दंगल में अभी पाँच छः घंटे की देरी होने पर भी वहाँ की सारी व्यवस्था इन्हें सँभालनी थी, क्योंकि
नगर के अनेक भद्र पुरुषों को इन्होंने इस काम के लिये न्योता
दिया था। जिस समय यह वहाँ पहुँचे हमारी यात्रा पार्टी
श्राद्ध के काम से निवृत्त होकर इनकी राह तकती हुई बैठी
थी। पहुँचने पर कोई आधा घंटा पंखा झलने के बाद इन्होंने
बूट उतारे। इन्होने नहीं, इनके दो नौकरों ने खैचखाँचकर उतारे।
इन्होंने कपड़े उतारे। स्नान के बदले मार्जन किया। मार्जन के
लिये "अपवित्रः पवित्रो वा इत्यादि" मंत्रोच्चारण करने का
श्रम इन्होंने उठाया हो सो नहीं। इनके साथ इस काम के
लिये एक पंडित जी मौजूद थे। बस इन्होंने रेशमी जरी
किनारे की धोती पहनकर तब एक बढ़िया पीतांबर कंधे पर
उत्तरीय की जगह डाला। कंधे पर डालते ही एक नौकर जो
पहले ही से इनकी राह देखता खड़ा हुआ था एक एक करके
पुष्प मालाएँ इन्हें देता गया और यह यात्रियों के मिले हुए दोनों