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इतना कहते ही सब के बंधन छूट गए और गुरू जी महाराज
उन्हीं वस्त्रों से केवल सिर पर टोपी रक्खे पालकी पर विराज-
कर बिदा हो गए। पंडित प्रियानाथ यद्दपि गुरू जी
के गुण सुनकर बहुत दुःखी हो गए थे, गया में आते
ही जब उन्हें इनका सब हात मालूम हो गया तब वह वाच-
स्पति को अपना गुरू मानने और इन्हें छोड़ देने तक का हठ
पकड़ बैठे थे और यदि वाचस्पति इस बात को स्वीकार कर
लेता तो वह अवश्य ही ऐसा कर डालने में न चूकते किंतु आज
गुरू जी का बर्ताव देखकर उन्हें कुछ कुछ संतोष हुआ।
जब लोगों ने उनसे कहा कि "हों यह चाहे जैसे किंतु इनके
हजार दोषों में एक प्रबल गुण यह है कि यह यात्रियों को
सताते नहीं है।" तब पंडितजी को और भी संताष हुआ।
यद्यपि पंडित जी ने ज्यों त्यों समय निकाल दिया परंतु
वह ऐसे मनुष्य नहीं थे जो गुरू जी को उपदेश दिए बिना यों
ही चले जायँ। यात्रियों के साथ अच्छा बर्ताव देखकर
इन्होंने अनुमान कर लिया कि "गुरू जी वास्तव में बुरे नहीं
हैं। उनके पासवाले खुशामदी ठग ने उनको बिगाड़ रखा
है और इसलिये यदि थोड़ा उद्योग किया जाय तो वह सँभल
भी सकते हैं क्योंकि उनकी 'गधापचीसी' का जमाना निकल
चुका है।" और वाचस्पति के कथन से प्रियानाथ को यह भी
विदित हो गया था कि "शरीर की अस्वस्थता, संतान के
अभाव और उमर ढल जाने के साथ साथ और और गयावालों