पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/२१

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"हाँ! मैं भी मानता हूँ और इस कारण अपने मन को बहुत सँभालने का प्रयत्न करता हूँ परंतु ज्यों ज्यों सँभालता हूँ त्यों त्यों वह मोह में गिरता है। यह मेरे मन की दुर्बलता है। और संसारी बनने के लिये इसे अवतारों तक ने दिखाया है।"

"बेशक! परंतु क्या उन्होंने दृढ़ता नहीं दिखाई है? वे यदि दृढ़ता न दिखाते तो राजा हरिश्चंद्र के विश्वामित्रजी के कोपानल की आहुति बन जाने का अवसर ही क्यों आता? महाराज दशरथ ही विरहानल में क्यों भस्म होते और भगवान् रामचंद्र ही क्यों पिता की आज्ञा से वनवासी बनकर चौदह वर्ष का संकट उठाते? सास के समझाने और पति के आज्ञा देने पर भी हठ करके माता जानकी क्यों भगवान के साथ जातीं? ऐसे अनेक उदाहरण हैं। पुराणों में ऐसे ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलेंगे। मुझ (मुसकुराकर) गँवारी को अपने ही सुना सुनाकर......"

प्रियंवदा की बात काटकर हँसते हुए -- "पंडितायिन बनाया है और वह पंडितायिन आज एक गँवार को उपदेश देकर पंडित बुला रही है।"

"जाओ जी! (जरा मुँह फेरकर मान दिखाती हुई) आप तो हर बार दिल्लगी कर बैठते हैं! यह हर बार की हँसी अच्छी नहीं।"

"हाँ ठीक तो हैं! आज इस तरह रूठने की भी शिक्षा मिली। ( गाल फुलाकर प्यारी की नकल करते हुए) आज से हम भी इस तरह मान किया करेंगे।"