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ये चक्ष पितरो ये च नेहयाश्च विद्मया णाँउचनप्रविद्म

वेत्ययति ते जातवेदः स्वधाभिर्यज्ञऽ सुंकृतंजुषस्व।

ऋग्वेद ६७"
 

मर्मानुवाद

"जो जीवित हैं, जो मृतक हो गए, जो उत्पन्न हुए हैं और जो यज्ञ करनेवाले हैं उनके लिये घृत की कुल्या मधु- धारा प्राप्त हो। हे अग्नि, जो पितर गाड़े गए हैं, जो पड़े रहे हैं, जो अग्नि से जलाए गए अथवा जो फेंके गए हैं उन सबके लिये हवि भक्षण करने को सम्यक् प्रकार से ले जाओ। जो अग्नि में जलाए गए हैं और जो नहीं जलाए गए हैं अथवा जा हवि भक्षण करके स्वर्ग में आनंन्दित है, है अग्नि, उनके अर्थ सेवन करने को ले जाओ क्योंकि तुम उन्हें जानते हो। हे कव्यवाहन अग्नि, तुम देवताओं और ॠत्विजों से स्तुत किए गए हो। तुमने हवियों को सुगंधित करके धारण किया है। पितृमंत्रों से पितरों के लिये दिया गया है और उन पितरों ने भी भक्षण किया है। अब तुम भी शुद्ध हवि को भक्षण करो। ये जो पितर इस लोक में (अन्य) देह धारण करके वर्तमान हैं, जो इस लोक में नहीं अर्थात् स्वर्ग में हैं, जिन पितरों को हम जानते अथवा स्मरण न होने से नहीं जानते, हे अग्नि, वे जितने पितर हैं उन सबको तुम सर्वज्ञ होकर जानते हो। उन पितरों को अन्नों से शुभ यज्ञ में सेवन करो।" अब इससे अधिक चाहिए तो पंडित ज्वालाप्रसाद मिश्र का "दयानंद