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प्रकरण--४५
मातृस्नेह की महिमा

गत प्रकारण के अंत में शास्रार्थ में सनातन धर्म के विजय होने से जन साधारण ने जयध्वनि के साथ जिस तरह आनंद प्रदर्शित किया सो लिखने की आवश्यकता नहीं और न यहाँ पर राह दिखलाने की आवश्यकता है कि यहां के गयावालों की घबड़ाहट मिट गई क्योंकि जब "यतों धर्मस्ततो जयः" का सिद्धांत अटल है तब इसमें आश्चर्य ही क्या? किंतु इस जगह एक बात के लिये विपक्षी भाइयों का अवश्य कृतज्ञ होना चाहिए। जो अश्रद्धा की, अधर्म की आग भीतर ही भीतर सुलगकर लोगों की पितृभक्ति का नष्ट कर रही थी, जिससे हजारों लाखो आस्तिकों में आस्तिक नाम धारण करनेवाले नास्तिकों का दल अपने धर्म के सिद्धांत न जानने से बढ़ रहा था वह एकदम बंद हो गया। शरीर में थोड़ा बहुत विकार जब तक विद्यमान रहे तब तक आदमी उसकी ओर से बेखबर रहता है किंतु जब वह इस तरह जोर पकड़ बैठता है तब उसे झख मारकर इलाज की सूझती है। इसलिये मानना चाहिए कि बीमारी भी ईश्वर की कृपा का फल है। दुःख अंत:करण का रेचन है।

अस्तु! फल यह हुआ कि गयावालों की आँखें खुल गई। अब उन्होंने समझ लिया कि हमारी काठ की हँडिया बार बार