पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(२२२)


से चाहे पशु-बलि विहित भी हो तो हो किंतु मैं ऐसा दृश्य देखने में असमर्थ हूँ। एक बार की घटना याद करके मेरा हृदय टुकड़े टुकड़े हो रहा है। इसी लिए मैं भगवती विंध्यवासिनी के दर्शनों का आनंद लेने से वंचित रहा,रहा,इसी कारण कलकत्ते जाने को भी जी नहीं चाहता है। हे माता, क्षमा करो। हे जगजननी रक्षा करो। मैं आपका अयोग्य भक्त हूँ। मैं मूढ़ हूँ। आपकी महिमा को आपकी, लीला को नहीं जानता। आप सचमुच ही गोस्वामी तुलसीदासजी के शब्दों में -- 'भव भव विभव पराभव कारिणि। विश्वविधा हनि स्वबस बिहारिणि हो'। माया और ब्रह्म का जोड़ा हैं। जैसे ब्रह्म से माया की रचना है वैसे ही माया बिना ब्रह्म नहीं। माता! मुझे क्षमा करो। मुझ पर दया करो।" कहते हुए पंडितजी चुप होकर थोड़ी देर तक विचार में पड़ गए। उनमें हे एक ने फिर पूछा --

"परंतु अनुभव?"

"हाँ! वास्तव में वहाँ जाने से अनुभव का लाभ विशेष है। कलकत्ता व्यापार का, दिशा का, सभ्यता का और कमाई का केंद्र है किंतु इन लाइ के अमृत में हलाहल विष मिला हुआ है। बलिदान के अधर्म में तो धर्म की आड़ भी है किंतु उसमें में घोर अधर्म है। याद करते ही रोमांच हेते हैं, कहते हुए जिह्वा टूटी पड़ती है और हृदय विदोर्ण हुआ जाता है।