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(२३३)

शमो दमत्तपः शौचं क्षांतिरार्जवमेव च।
ज्ञानविज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वमावजम् ॥२॥
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥३॥
शौर्यं तेजो वृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
कृपिगांरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ॥४॥
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरः॥

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बस, इन महावाक्यों के अनुसार मानता हूँ कि जो जिस कर्म में अभिरत है उसी में उसे सिद्धि प्राप्त होती है। केवल वर्णाश्रम धर्म का पालन होना चाहिए।"

"इसमें आपका हमारा मतभेद नहीं किंतु इससे जन्म से वर्ण सिद्ध नहीं होता।"

"सिद्ध क्यों नहीं होता? जब आप पुनर्जन्म मानते हैं, पूर्वजन्म के शुभाशुभ फलों से उच्च और नीच जाति में जन्म ग्रहण करना मानते हैं तब आप कैसे इसे नहीं मान सकते?"

"अच्छा, तब नीचों की उन्नति क्योंकर हो? १ ठेड़, चमार, मंगी और ऐसे ही अंत्यज केवल हमारी छुआछूत से अधिक अधिक गहरे गढ़े में गिर रहे हैं।"

"उन्हें निकालना चाहिए, उनको सदुपदेश देकर उनके मद्यपानादि दोष छुड़ाने चाहिएँ। उनके जो पेशे हैं उनकी उन्नति करने के लिये उन्हें आर्थिक सहायता देनी चाहिए।