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ऐसे गाते गाते ही उन्हें राक्षसराज विभीषण के मनोरथ स्मरण हो आए। "अहा! कैसा मनोहर दृश्य है। कथा का स्मरण होते ही अंत:करण में कैसे भाव उत्पन्न हो उठे। वास्तव में विभी- षण धन्य था जिसने भगवान् रामचंद्र के दर्शन जाकर किए। तबसे उसने रावण-सभा का त्याग किया उसे एक एक पद पर, एक एक कदम पर, अश्वमेघ यज्ञ का फल होना चाहिए। इससे भी बढ़कर। इसके आग वह कोई वस्तु नहीं। सूरदासजी के मनोरथ और विभीषण ले मनोरथ्य समान ही समझो किंतु विभी- षण से सूरदासजी को और सूरदासजी से विभीषण को फल अधिक मिला। दोनों में से नहीं कहा जा सकता कि किसे विशेष मिला। एक श्रीगोलोकबिहारी के कारणों की युग युगांतर तक सेवा और दूसरे को अखंड ऐश्वर्ययुक्त राज्य। प्रभु चरण कमलों में पहुँचने पर भी प्रवृत्ति। गोस्वामी तुलसी- दासजी के शब्दों में विभीषण का मनोरथ था --

चौपाई -- चलेउ हरखि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥
देखिहौं जाय चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी ऋषिनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥
जे पद जनकसुता उर लाये।
कपट कुरंग संग धर धाये॥