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(२३७)

हर उर सर सरोज पद जेई।
अहो भाग्य में देखब तेई॥

दोहा -- जिन पायन के पादुका, भरत रहे मन लाय।

ते पद आज बिलोकिहौं, इन नयनन अब जाय॥

यों उसका मनोरथ निःसंदेह केवल अव्याभिचारिणी भक्ति पाने का था और उसे मिल भी गई किंतु साथ ही लंका का राज्य भी उसके गले मढ़ दिया गया। फल यही हुआ कि जो कुछ भगवान् को कर्तव्य था। उसने प्रार्थना की थी कि --

उर कछु प्रथम वासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो रही॥
अब कृपालु मोहि भक्ति सुपावनि।
देहु कृपा करि शिव मान भावनि॥

इससे स्पष्ट है कि दर्शन करने से पूर्व उसे जो राज्य पाने की वासना थी वह एकदम नष्ट हो गई। अब उसे बिलकुल इच्छा न रही कि राज्य कोई वस्तु है। उसने परमेश्वर की अविचल भक्ति के आगे संसार को तुच्छ समझा और भगवान् ने "एवमस्तु" कहकर उसे वह बी भी परंतु साथ ही --

चौपाई -- एवमस्तु कहि प्रभु रणधीरा।
माँगा तुरत सिंधु कर नीरा॥
जदपि सखा तोहि इच्छा नाहीं।
मम दर्शन अमोघ जग माहीं॥