पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/२५

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अर्थात -- जो जिसके मांस को भक्षण करता है वह (केवल) उसी का भक्षक कहलाता है किंतु मछली खानेवाले समस्त मांसों के खानेवाले हैं। जे आत्मसुख के लिये प्राणियों का वध करते हैं, उन्हें सताते हैं उनको न तो जीने में सुख मिलता है और न मरने पर स्वर्ग। जो मनुष्य (कभी) किसी प्राणी के बाँधने तथा मार डालने (तक) की इच्छा मात्र भी नहीं करता वह सबका शुभचिंतक है और वही सदा सर्वदा सुख से रहता है। जे मनुष्य कभी किसी प्राणी की हिंसा नहीं करता उसका ईश्वर में ध्यान, शुभ कर्म और सद्धर्म बिना यत्न किए ही सिद्ध हो जाते हैं (क्योंकि धर्म के सद्नुष्ठानों के लिये हिंसा एक बलवान् बाधक है)। प्राणियों की हिंसा किए बिना कदापि मांस नहीं मिल सकता और हिंसा करने से स्वर्ग की प्राप्ति नहीं, इसलिये मांस को छोड़ दो। माँस की उत्पत्ति ही रज-वीर्य से है -- (उस शुक-शाणित से जिसके निकल पड़ने से स्नान की आवश्यकता होती है) -- मांस प्राप्त करने में जीव को बांधना, मारना पड़ता है इस कारण किसी जीव का मांस न खाना चाहिए। जो मनुष्य विधिहीन पिशाच की नाई मांस नहीं खाता है वही जगत का प्यारा है और उसे रोगों की पीड़ा नहीं होती। मांस के लिये सम्मति देनेवाला, प्राणी के अंगों के काटनेवाला, उसका वध करनेवाला, उसे बेचने और खरीदनेवाला, उसे पकानेवाला, चुरानेवाला और खानेवाला ये सब मारनेवाले के समान हैं। जो मनुष्य यज्ञादि के