पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/२६

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बिना पराए मांस से अपने मांस को बढ़ाता है उसके खमाल कोई पापी नहीं है। जो प्रति वर्ष अश्वमेघ यज्ञ करता हुआ सौ अश्वमेघ कर जाता है और उससे जो पुण्य होता है वह पुण्य मांस न खानेवाले के पुण्य से बढ़कर नहीं है। पवित्र कंद मूल फल के खाने से, शुद्ध मुनियों के अन्न का भोजन करने से जो पुण्य होता है वही मांस न खाने से। जिस किसी प्राणी का मांस इस लोक में खाया जाता है वही प्राणी परलोक में उस भक्षक का मांस खाता है, यही मनीषियों की आज्ञा है। समझे महाराज !"

"हाँ धर्मावतार! समझा, परंतु आपके प्रमाणों में भी तो यज्ञ की विधि है।"

"बेशक विधि है किंतु प्रथम तो उन्हीं में देखिए अश्वमेघ से बढ़कर कोई यज्ञ नहीं और सो भी सौ अश्वमेध। सौ अश्वमेध के कर्ता इंद्र से भी बढ़कर मांसत्यागी बतलाया गया है, फिर आपको जहाँ विधि के वचन दिखालाई देते हैं वहाँ भी निषेध से ही तात्पर्य है क्योंकि 'न नौ मन तेल होगा और न बीबी नाचेंगी!' श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंद में यह बात स्पष्ट कर दी है। जैसे --

"लोके व्यवायामिषमद्यसेवा नित्यास्ति जंतोर्नहि तत्र चोदना।

व्यवस्थितिस्तेषु विवाहयज्ञसुराग्रहैरासु निवृत्तिरिष्टा॥"

अर्थात् -- संसार में स्त्री-संग, मांस, मदिरा -- इनकी ओर स्वभाव से प्रवृत्ति है। यह धर्म नहीं है किंतु अधर्म समझ.