पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/३२

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अस्तु! प्रयाग में आकर इन लोगों ने वहाँ के सब ही मुख्य मुख्य तीर्थों में, देवालयों में और पुण्यस्थलों में जो आनंद पाया, जिस तरह इन्होंने अपके लेाचन सुफल किए और जैसी इनके अंत:करण की तृप्ति हुई सो तब ही मालूम हो सकता है जब पाठक नायिकाएँ स्वयं प्रयाग पधारकर उसका अनुभव प्राप्त करें। चाहे विद्वानों की भाषा में उसे प्रकाशित कर देने की सामर्थ्य हो तो हो सकती है किंतु इस उपन्यासलेखक की भाषा पोच है और वह मानता भी है कि अनुभव का मजा अनुभव में ही है। हाँ! पंडित प्रियानाथतजी के अनुभव की दो चार बातें यह प्रकाशित किए बिना यदि वह वहाँ से कूच कर जायँ तो समझना होगा कि उन्होंने अपनी यात्रा के उद्देश्य में कसर कर दी। उनके कर्तव्यपालन में "परंतु" लग गया।

पंडितजी के अनुभव का बुरा और भला खाका गत प्रकरणों में लिखा जा चुका है और शेष इस तरह है। इन सबका ही यह नियम था कि वे नित्य शरीर कृत्य से निवृत्त होकर स्नान संध्यादि नित्य नियम के अन्ततर और भोजन से पूर्व तीर्थयात्रा किया करते थे। लेग इनसे कहते भी कि अधिक भूख मारने से बीमार हो जाओगे किंतु इन्हें यह बात पसंद नहीं थी। और जैसे कट्टर यह थे वैसा ही बूढ़ा भगवान दास। बस इसी लिये नित्य के नियमानुसार आज इन्होंने पार जाने की तैयारी की। पार जाने पर वल्लभ संप्रदाय के संस्था-