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प्रकरण--२७
सतयुग का समा

गत प्रकरण में स्वामी महाराज की आँख का इशारा पाकर हमारी यात्रा-पार्टी बैठ अवश्य गई और हाथ जोड़े बैठी रही, किंतु उधर साधु बाबा मौन और इधर ये लोग चुपचाप। उनकी तपस्या का, उनकी कांति का और उनके आतंक का तेज देखकर जब ये लोग उनसे धुन मिलाने में ही असमर्थ हैं तब बोलना कैसा! जब जब ये उनकी ओर आँखें उठाकर देखते हैं तब ही तब इनके नेत्र झेंप जाते हैं। ज्येष्ठ के सूर्य की प्रखर किरणों में से जैसे तेज बरसा करता है, शरद के विमल चंद्रमा में से जैसे अमृतवर्षा होती है, वैसे ही इनके नेत्र मंडलों की एक अद्भुत ज्योति अपना प्रभाव बरसा बरसा- कर इन लोगों के हृदय में अलौकिक आनंद उत्पन्न कर रही है। इस तरह निश्चेष्ट, निस्तब्ध देखकर, किसी का भी अपने ऊपर लक्ष न पाकर प्रियंवदा के नेत्रों ने प्रियानाथ को लोचनों से झेंपते झेंपते, लजाते लजाते इतना अवश्य कह दिया -- "वे ही हैं!" पंडित जी की आंखों ने -- "हाँ वे ही हैं" कहकर अनु- सोदन भी कर दिया। किंतु सचमुच ही यहाँ कम से कम आधे घंटे तक बिलकुल मूकराज्य रहा, सन्नाटा छाया रहा। और यदि वट वृक्ष की ओट में से कोई उस चुप्पी को तोड़ने-