पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/४३

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ही नहीं होते और जब वह छुटकार पाने के लिये मचल जाता है तब "वाह, कैसे छोड़ दें ? गहरा इनाम मिलेगा।" कहकर उसे घसीटने लगते हैं। खैर! घसीटते हैं तो घसीटने दीजिए। जब उसे घसीटते घसीटते वे चारों दूर ले गए, जब देखते देखते वे आखों से गायब हो गए, जय बहुत जोर मारने पर भी नेत्र-हरकारों ने उनका पीछा करने से जवाब दे दिया तब उसका पता पाने का चारा ही कया है? और इस समय जब उनका पता लगाना बन हो नहीं सकता तब बूढ़े भगवान् दास और प्रियंवदा के हृद्गत भावों को यहाँ प्रकाशित करना भी किस्से का मजा किरकिरा कर देना है। हा! इतना यहाँ लिख देना चाहिए कि वह मौनी बाबा, कांतानाथ के श्वसुर पंडित बृदावनविहारी थे और तार के साथ जो पर्चा छोटे भैया का मिला था वह इन्हीं का लिखा हुआ था। जो बात तार में थी वही शब्दों की कुछ अदल बदल के सिवाय पर्चे में थी। इसलिये उसकी नकल प्रकाशित करने से कुछ लाभ नहीं।

हमारी यात्रापार्टी आज नित्य की अपेक्षा अधिक मंजिल मारने और भोजन में अतिकाल हो जाने से लड़खड़ा गई थी। इसलिये सब के सब खा पीकर पड़ रहे और ऐसे पड़े कि जब तक प्रात:काल के टनाटन पाच न बजे इन्होंने करवट तक न बदली। "ओहो, बड़ा विलंब हो गया!" कहकर पंडितजी जगे। उनके साथ ही और सब जागे और तब नित्यकृत से निवृत्त होकर नित्य के समान ये लेाग चल दिए।