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प्रकरण -- २८
कांतानाथ के घरेलू धंधे

तेईसवे प्रकरण के अंत में अंत:करण में बहुत ही खेद होने पर भी यात्रा का परित्याग करने के अनंतर, धर्मामृत का प्याला होंठ से लगा लगाया छिन जाने पर, गृहस्थाश्रम का सुख की मिट्टी पलीत हो जाने पर पंडित कांतानाथ को मन मार- कर अवश्य घर रहना पड़ा, और वह रहे भी चार दिक्कड़ आपने हाथ में जल भुने खाने के बाद मग्न , और ईश्वर की ऐसी ही इच्छा अथवा कर्म के ऐसे ही भोग समझकर उन्होंने इस दुःख को विशेष दु:ख नही माना। यह पंडित रमानाथ शास्त्री जैसे विद्वान् के पुत्र और पंडित प्रियानाथ एम० ए० जैसे महानुभाव के जब भाई थे और जब स्वयं पढ़े लिखे थे तब ऐसी विपत्ति पड़ने पर घबड़ाते भी तो क्यों? उनका सिद्धांत था कि विपत्ति ही मनुष्य के मन को विमल करने की कसौटी है। "विपत्ति बराबर सुख नहीं जो थोड़े दिन होय।" -- यह उनका मोटो था। बस इसलिये वह इस दुःख को भी सुख मानकर आनंद से घर रहे।

इनके माता पिता का देहांत हो ही चुका था। घर में दोनों भाई और दोनों की बहुओं के सिवाय कोई नहीं था। यद्यपि पिताजी दोनों भाइयों का परस्पर भरत और राम का