पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/६०

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लाई। समय के फेर से चाहे भारतवासियों के दिल से हमदर्दी भाग गई हो, चाहे उनमें आपस के लड़ाई झगड़े बढ़कर अदालतों की आमदनी ही दिन रात साहूकार के कर्जे की तरह बढ़ती बढ़ती हद तक क्यों न पहुँच जाय परंतु गाँवों में अब तक नीच ऊँच की, धनवान् दरिद्र का विचार छोड़कर आपस में एक दूसरे से किसी न किसी रिश्ते नाते ही से बोलते चालते हैं। यदि जाति का चमार हो ते कुछ हर्ज नहीं। बूढ़ा होना चाहिए। ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर और गांव के जमींदार नंवरदार तक उससे बाबा कहेंगे और एक छोटी बड़ी औरतें उसके आगे घूँघद निकाले बिना, अदब के कपड़े पहने बिना कभी न निकलेंगी। यही गाँवों की परिपाटी है। यदि इस बात को कुछ सुधारकर बढ़ाया जाय तो उनमें परस्पर हमदर्दी बढ़कर गांवों की बहुत उन्नति हो सकती है और राजा प्रजा दोनों ही का इसमें लाभ है।

मुफ्ती में रहकर बूढ़ा भगवानदास जब सबसे पहले सिर के बल सब ही छोटे मोटे के काम आने में तैयार था, अब वह सब ही के दुःख दर्द का साथी था और जब सब ही के ऊपर की धाक थी तब गाँव की दस बारह औरतों ने यदि सेवा की बहू के साथ इतनी हमदर्दी दिखलाई तो इसमें में अचरज क्या है? मनुष्य जितना किसी के कोप से नहीं डरता, जितना विपत्ति से नहीं घबड़ाता और जितना उसकी पुकार न सुनने पर नहीं रोता उतना हमदर्दी का सहारा पाकर उसका