पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(५४)


हृदय भर आया करता है। बस सेवा की बहू की यही दशा हुई। पनिहारियों के पूछते ही वह फूट फूटकर रोने लगी। उसकी आँखों से सावन भादों की सी आँसुओं की झड़ी लगकर उसके गालों पर बहकर अँगिया भिगोती हुई कलेजे को ठंढक पहुँचाने लगी। उसकी घिग्घियाँ बँध गई। अब वह जाड़े के मारे काँपने लगीं। अच्छा हुआ कि दो औरतों ने उसे गिरते गिरते सँभाल लिया नहीं तो कुएँ में पड़ जाने में कुछ कसर नहीं रही थी। किसी ने अपने घड़े में से दो चुल्लू पानी लेकर उसकी आँखें छिड़कीं और कोई अपने अंचल से उस पर हवा करने लगी। ऐसा करने से जब थोड़ी देर में उसके होश कुछ ठिकाने आए तब वह इस तरह कहने लगी कि --

"मैं अपना दुखड़ा क्या रोऊ वीर! कहने से घर की बात बिगड़ती है! जब से वे लोग गए हैं उनकी कोई चिट्ठी नहीं आई। मैं तो इस फिकर के मारे पहले ही मरी जाती हूँ। फिर जब से यहाँ से बाबा गए, कोई किसी की नहीं सुनता। जिसके जी में जो आता है वही करता है। कहाँ तक कहूँ । आठ बजे तो सोते ही उठते हैं, मन में आया काम किया और मन में आया न किया। खेत सूख जायँ तो कुछ पर्वाह नहीं। चूल्हे पर रखा हुआ दूध जलकर राख हो जाय तो हो जाय। घर में से जो कोई चीज उठा ले गया तो ले जाने दो। किवाड़ा खुला पड़ा है। इस बारह दीनों में तीन