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प्रकरण--३०
हिंदी और बलिदान

"मुझे मर जाना मंजूर है परंतु जनानी गाड़ी में कदापि न बैठूँगी। एक बार बैठकर खूब फल पा लिया।" कहकर जब प्रियंवदा हठ पकड़ बैठी और जब उसे अलग बिठलाने में पहले का सा भय फिर भी तैयार था सब पंडित प्रियानाथ भगवान, भोला, गोपीवल्लभ और चमेली का तीसरे दर्जे में बिठलाकर आप अपनी प्यारी को लिये हुए ड्योड़े दर्जे में जा बैठे। यहाँ इस जोड़ो के सिवाय दो स्त्रियाँ और चार पुरूष पहले से बैठे हुए थे। बस इनके पहुँचते ही औरतों की पार्टी अलग हो गई और मर्दों की अलग। सब ही ने "आइए आइए! इधर बैठिए! यहाँ आ जाइए!" कहकर इनको आराम से जगह दी। प्रियंवदा वास्तव में प्रियंवदा, मृदु- भाषिणी थी और वे ललनाएँ भी किसी भले घर की जान पड़ती थीं। बस थोड़ी देर में यह उनसे ऐसी मिल गई जैसे दूध में मिश्री। तीनों में आज खूब घुट घुटकर बातें हो रही हैं। प्रियंवदा को आज डर नहीं है कि "निगूता फिर आ भरेगा।" और वे दोनों ललनाएँ अपने अपने आदमियों का साथ न होने से अभी तक मुरझाई हुई, डरती हुई बैठी