पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/७०

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से भौचक से रहकर उसके मुँह की ओर देखने लगे और इस अर्से में पंडितजी अपनी डिबिया बंदकर जेल में डालते हुए कहने लगे --

"क्यों साहब! यह चाल बुरी क्यों है? हम लोग अकेले अकेले खाकर केवल अपना हो पेट पाल लेना बुरा समझते हैं। जो कुछ पास हुआ उसे यदि बाँटकर खा लिया, साथियों को देकर खाया तो इसमें बुराई कया हुई? यह तो परस्पर का मेल मिलाप है। ऐसे ही हिल मिलकर बैठना है। ऐसे ही हेल मेल से मित्रता हो जाती है और वह मित्रता समय पर काम दे जाती है।"

"यस, यह मुमकिन है लेकिन फिजूल टाइम को डेस्ट्राय क्यों करना? आप लोग अंगरेजी पढ़कर भी अभी तक टाइम की वेल्यू नहीं जानते।"

"समय का मूल्य तो जितना हम जानते हैं उतना आप भी नहीं जानते होंगे। ऐसे मेल मिलाप में जो समय लगता है वह खोया नहीं जाता, कमाया जाता है। अच्छा हम भारत- वासी गँवार इस प्रकार से समय को नष्ट ही करते हैं तो आप यह रेनल्ड का उपन्यास पढ़कर अपना विचार क्यों नष्ट कर रहे हैं, ऐसी अंगरेजी उर्दू की खिचड़ी बोलकर अपनी मातृ- भाषा क्यों नष्ट करते हैं और कोट पतलून के साथ ऐसा दोष लगाकर देश का रिवाज क्यों नष्ट करते हैं, हमारी जातीयता क्यों नष्ट करते हैं?"