पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/७५

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विवाद की समाप्ति होकर ज्योंही दूसरे के छिढ़ने का अवसर आया ट्रेन धीरी पड़ते पड़ते रूककर "विंध्याचल! विंध्या- चल!!" की आबाज ने सब मुसाफिरों के कान खड़े कर दिए। तीसरे दर्जे की गाड़ी में से बूढ़ा, बुढ़िया और भोला अपना अपना असबाब लेकार उसर पड़े और पंडितायिन ने भी खड़ी होकर पति राम से उतरने का संकेत किया किंतु इन्होंने बूढे को ससमझकर जब लोगों को जब सदार करा दिया तब उस हिंदु मुसाफिर ने इनसे पूछा --

"क्यों पंडितजी! उतरते उतरते कैसे रह गए? मन सूबा क्यों बदल दिया?"

"हाँ! विचार अवश्य बदल दिया! मुझे एक बात का ध्यान आ गया (कुछ ध्यान करके हाथ जोड़ते और आँखें मुँदते हुए) भगवनी विंध्यवासिनी, माता जगज्जननी! दास का अपराध क्षमा करियो! माई रक्षा करो! मैं वैष्णव हूँ! बलिदान की प्रथा चाहे तंत्र शास्त्रों की अनुमोदित हो किंतु मेरा कोमल हृदय तुम्हारी लीला देखकर स्थिर नहीं रह सकता। तुम साक्षात माया हो। इस संसार की स्थिति ही तुझसे है। तुम्हारी लीला को तुमही जानो। मैं दुर्बल ब्राह्मण बलिदान के समय बकरों का करूणा क्रंदन, उनके पैरों की छटपटाहट, उनके रक्त का प्रवाह और उनका अंत समय का कष्ट देखकर मन को दृड़ रखने में असमर्थ हूँ। एक बार एक जगह भगवती की ऐसी लीला का विकट दृश्य देख चुका हूँ।