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विशेष विशेष शोभा देखने के लिये खड़ी हो गई अथवा भगवान्
शंकर की अद्धांगिनी हैं, यहाँ खड़ी खड़ी उनके चरणों
का ध्यान करती हैं, उनसे प्रार्थना करती हैं, उनसे कहती हैं
कि "हृदयेश, दासी को इन पुण्य चरणों का वियोग न
दो। मेरी इच्छा नहीं होती कि मैं आपको छोड़कर एक
पग भी आगे बढूँ.।"
अस्तु! यह बात नहीं है कि यहाँ मगर न हों , घड़ियाल न हों और गंगा में ऐसे जंतुओं का अभाव हो जो आदमी को खैंचकर ले जाते है, उसकी जान ले डालते हैं परंतु अभी तक, यहाँ के बूढ़ो बूढ़ो से पूछिए किसी ने कभी ऐसी घटना सुनी है? नहीं कदापि नहीं। भगवान दाशरथनंदन के राम- राज्य में जैसे प्यारी पत्नियों का प्रेम से पीड़ित करनेवाले उनके पतियों के सिवाय कोई किसी को नहीं सता सकता था, सिंह और बकरी एक घाट पानी पीते थे, जैसे हाथी और घोड़ों के बंधन के सिवाय बेड़ियों का बंधन नहीं था वैसे ही यहां के मगर मच्छ किसी के प्यारे प्राणों की पीड़ा पहुँचाना भूल गए हैं। केवल धर्मबंधन के अतिरिक्त इस ब्रह्मदव में यावत् सांसा- रिक बंधनों का अभाव है, स्नान-मात्र से सब बंधन छूट जाते हैं।
यह तो है सो है ही किंतु एक बात का यहाँ अपूर्व आनंद
है, वैसा आनंद कहीं दुनिया भर में न होगा। जरा देखिए
तो सही! गंगा तट की ओर निहारकर अपने कमल नयनों
को जरा सुफल तो कर लीजिए। अहा! कैसी विचित्र छटा