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फिरें उचका दै दै बछा लुटैं माल मवासी।
कंद भए की लाज तनिक नहिं बेशर्मी नंगा सी॥
साहब के घर दौरे जावैं चंदा देइ निकासी।
चढ़ै बुखार नाम मंदिर का सुनतै होइ उदासी॥
घर की जोरू लड़के भूखे बने दास औ दासी।
दाल कि मंडी मंडी पूजैं मानों इनकी मासी॥
आप माल कचरैं छानैं उठि भोरै कामावासी।
कारि व्यवहार साख बाँधें मानु पूरी दौलत दासी॥
बाप कि तिथि दिन बाँभन आगे परैं सरा औ बासी।
घालि रूपैया काढि दिवाला माल डकारैं ठाँसी॥
काम कथा अमृत सी पीवैं समझैं ताहि बिलासी।
राम नाम मुँह से नहिं निकतै सुनतै या खाँसी॥"
"जरा संभालकर बोल! दुष्ट! हमारे जैसे महात्मा साधुओं को क्रोध आ जाय तो एक ही फटकार में भस्म हो जाय।"
बस भस्म का नाम सुनते ही प्रियवदा कांप उठी। उसका
सारा शरीर पसीने में सराबोर हा गया। घबड़ाहट में
आकर वह लोक-लाज भूल गई। उसे उस समय यह भी
सुधि न रही कि मैं इतने आदमियों के समक्ष पति से कैसे
बात करती हूँ। यदि सुधि होती तो शायद आँखों ही आँखों
से पति को मना करने की चेष्टा करती, किंतु भयभीत होकर
उसके मुख से निकला --