पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(८३)


चंदनादि नित्यकर्म होता है। जो इन बातों के अधिकारी नहीं हैं उनका भजन होता है, द्वादशाक्षरी अथवा अष्टाक्षरी मंत्र का जप होता है। सब ही मिलकर एक लय से एक राग में भगवती की स्तुति करते हैं और पद्माकर की "गंगा- लहरी" के चुने हुए पद गा गाकर मग्न हो जाते हैं। नित्य ही जाह्नवी का पूजन होता है और इस तरह गंगा की आरा- धना में इनके घंटों गुजर जाते हैं। महारानी की कृपा से इन्हें घाट भी अच्छा मिल गया है। घाट वही जहाँ से आचार्य महाप्रभु भगवान् बल्लभाचार्यजी ने संन्यास ग्रहण करने के अनंतर गोलोक को प्रमाण किया था। इस घाट के दर्शन करने से पंडितजी की विचार-शक्ति इनके धर्म-चक्षुओं के समक्ष वही दृश्य ला खड़ा करती है। इन आँखों को न हो तो न सही किन्तु हृदय के नेत्रों को दिखाई देता है कि महाप्रभु के इस लौकिक शरीर की अलौकिक ज्योति देखते देखते ऊपर को उठकर सूर्य किरणों का भेदन करती हुई भगवान् भुवनभास्कर में जा मिलती है। इस दृश्य को देखकर यह सचमुच विह्वल हो जाते हैं, गद्गद हो उठते हैं और उस समय इन्हें जो कोई देखे तो कह सकता है कि यह विक्षिप्त हैं। इनकी नित्यकर्म में ऐसी एकाग्रता, इनका उच्च भाव और इनकी कांति देखकर किसी को उस समय इन्हें सताने का साहस नहीं होता, और इसलिये इन्हें बहुत ही आनंद से अपने संध्योपासनादि कर्म करने का अच्छा अवसर मिल जाता है।