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गंगाजी की सीढ़ियाँ चढ़ने बतरने में चाहे इनके और साथी थकें चाहे न थकें के किंतु हनुमान घाट की सीढ़िया चढ़ना प्रियंवदा के लिये वास्तव में बदरीनारायण की चढ़ाई हैं। वह चाहे अपने मन की दृढ़ता प्रकाशित करने के लिये अपने मन का भाव छिपाने का प्रयत्न करे किंतु उसके मुख कमल की मुरझाहट, उस पर प्रस्वेद-विदु और उसके नेत्रों की सजलता दोड़ दौड़कर चुगली खा रही है कि वह थक गई है, घबड़ा उठी है। अपनी थकावट मेटने के लिये उसे दस दस बीस बीस सीढ़ियाँ चढ़कर बीच बीच में साँस लना पड़ता है। समय समय पर उसे साहस दिलाने के लिये प्राणनाथ मृदु मुसक्यान में प्रबोध भी देने हैं कितु कभी वाणी से और कभी नेत्रों से और कभी कभी दोनों से उत्तर यहां मिलता है कि स्वामी-चरणों के प्रताप से, भगवती के प्रसाद से अवश्य पार हो जाऊँगी और जो कही न हुई तो, "गंगाजी को पैरवो अरू विप्रन का व्यवहार, डूब गए तो पार है और पार गए ले पार।" हाँपते हाँपते थके मुँह से, कभी पैर फिसलते समय और कभी लड़खड़ाते लड़खड़ाते प्यारी की ओर से ऐसा उत्तर पाकर प्रियानाथ की कली कली खिल उठती है क्योंकि अपनी मनचाही गृहिणी पाकर वह अपने भाग्य को सराहत हैं।

मथुरा और प्रयाग के अनुभव ने पंडितजी की सचमुच आँखें खोल दी। यदि इष्टदेव इन्हें ऐसी सुबुद्धि न देता तो काशी में आकर अवश्य ही इन्हें लेने के देने पड़ जाते।