पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/९६

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इस प्रकार से स्तुति करने के अनंतर पंडितजी ने वेद- विधि से विश्वभर विश्वनाथ का स्वयं अपने हाथों से रूद्रा- भिषेक किया, गौड़बोले समेत ग्यारह संस्कृतवेत्ता अच्छे कर्मष्टि ब्राह्मणों से लघुरूद्र याग करवाया और प्रियंवदा ने शिव-पार्वती का भक्तिपूर्वक पूजन करते समय गिरिराज- किशोरी से प्रार्थना की --

"जगज्जननी, पूजन करने के लिये आपने जिस महानुभाव के चरणों की, इस दासी को दासी बनाया है वह कम नहीं है। इस घोर कलिकाल में उसकी भी सधा बन जाय तो बहुत है, किंतु आज मैं, हे माता! हे शंभरप्रिया! तुम्हारी एक स्वार्थवश पूजा करती हूँ। जैसे तुम्हारा सौभाग्य चिर- स्थानी है वैसे ही मेरा अहिबान अमर रखियो। जैसे महादेव बाबा का तुम्हारे ऊपर अलौकिक प्रेम है वैसा ही इनका इस गँवारी दासी पर बना रहें और जिस जगह मैं कर्मवश जन्म लूँ वहाँ, जन्मजन्मांतरों में भी सदा ही इनकी दासी बनी रहूँ। बस माता मुझे और कुछ नहीं चाहिए।"

"अथवा यों कि युगयुगांतर तक मैं इसे अपना दास बनाए रक्खूँ! और बेटा क्यों न माँगा?" इस तरह अर्द्ध स्फुट शब्दों के साथ पंडितजी मुसकुराए और तिरछी चितवन से आँखों में हाँ और वाणी से ना करते हुए "देव मंदिर में भी दिल्लगी!" कहकर लज्जा के मारे प्रियंवदा ने सिर झुका लिया। जब "सावधान!" कहकर गौड़बोले ने