पृष्ठ:आदर्श हिंदू २.pdf/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(९१)


प्रसन्न हो जाता है कि उस भक्त को अपने से भी बड़ा बना लेता है। किंतु तू प्रसन्न भी जल्दी होता है और नाराज भी तुरंत ही। धन्य बाबा, तेरी गति अपरंपार है। हे नाथ, रक्षा कर! रक्षा कर! मैं तेरी दया का भिखारी हूँ और तू अवघड़ दानी है। मैं भक्ति का ग्राहक हूँ और तू, भोला भंडारी है। गोस्वामी तुलसीदासजी के समान मुझ अकिंचन में सामर्थ्य नहीं है जिन्होंने अपनी भक्ति के बल से मुरलीधर को धनुर्धर बना दिया था, किंतु जहाँ तू है वहाँ वह है। तुझमें वह और उसमें तू है। तू और वह एक ही है। हे नाथ! मेरा उद्धार कर! मुझे संसार की उपाधियों से, दुनिया के दु:खों से बचा! विश्व का नाथ होकर उसको पैदा करने- वाला तू, तूही उसकी स्थिति का हेतु और तूही संहारकर्ता है।" ऐसे कहते हुए पंडितजी प्रेमाश्रु बहाने लगे, गौड़बोले भक्तिरस में अपनी देह को भूलकर नाचने लगा और थोड़ी देर तक ऐसा समा जमा रहा कि दर्शक अवाक होकर टक- टकी लगाए देखते के देखते रह गए।

पंडितजी को थोड़ी देर में जब चेत हुआ तब वह गौड़- बोले से बोले --

"वास्तव में दोनों एक ही हैं। इसमें वह और उसमें यह हैं। चाहिए मन की एकाग्रता, अनन्य भक्ति, नि:स्वार्थ प्रेम। बस इससे बढ़कर दुनिया में कोई नहीं। ज्ञान नहीं, वैराग्य नहीं और झुछ नहीं। सब इसके चाकर हैं।"