पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१०१

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हैं किंतु जब दोनों अलग होने पर दोनों के हृदय का भाव एक है, दोनों ही दोनों भक्ति पुष्पांजलि समर्पण करने के लिये एकाण हुए हैं और जिनकी आराधना करने के लिये इन्होंने खिर नवाए हैं वे एक प्राण दो तन हैं तब आज से ही कांतानाथ और सुखद के होश्य का गठजोड़ा समझ लो । “भैया उठी । लल्ला उठो ।" कलकर जब दोनों कह हारे तब पंडित जी ने बलपूर्वक उठाकर कातांनाथ को छाती से लगा लिया, छोटी के मस्तक पर हाथ फेरा और तब चारों एक दूसरे की ओर टकटकी बांधकर देखने लगे । हाँ ! यह इतना अवश्य कह देना चाहिए कि प्रियंवदा का अर्द्धस्ट घुंघट देवर के मुख्य कमल के पुत्रवत् निरस्व रहा था और देवर भौजाई जब नतभू, होकर अवाक थे तब सुखदा विचारी की आँखों के सामने गाड़े घूंघट की कनाड खड़ी थी।

कोई दस मिनट तक ये लोग यों ही खड़े रहे । किसी के मुख से कोई शब्द ही न निकल पाया । ऐसे आत्मीर के सम्मिलन के समय मुखरा वायी ही जब कर्तव्य-शुन्य होकर प्रेम प्रवाह में अपनी वाचालता के बहा देती है तब सबके सब गूंगे की तरह हैं, उनमें से कोई भी बोलता तो किस तरह ! अस्तु पंडित जी ने सब से पहले अपने अंतःकरण के सँभाला। वह कहने लगे---

“स्वस्त्यस्तु ते कुशलमस्तु चिरायुरस्तु,
गोवाजिहस्तिधनधान्यसमृद्धिरस्तु ।