पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१०२

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ऐश्वर्यं मरतु बलमस्तु रिपुच्चयोस्तु,
वंशे सदैव भदतां हरिभक्तिरस्तु ।।"

और साथ ही "अखंड सैभाग्यवती पतिपरायण पुत्रवती भव" कहकर उन्होंने एक बार फिर सुखदा के सिर पर हाथ फेरा । कांतानाथ की जब अभी तक प्रेम.विह्वलता बनी हुई थी तब उसके मन में ऐसा आशीर्वाद सुनकर कैसे भाव पैदा हुए सो मैं क्या हैं किंतु सुखदा के निश्चय हो गया कि "मुझे मनवांछित फल मिल गया ।" बस वह आनंद में मग्न होकर थाह पाने का प्रयत्न करती हुई सब के साथ गाड़ियां में चढ़कर पुष्कर पहुँची ।

"पुत्रवती भव" का आशीर्वाद पाकर सुखा को यद्यपि निश्चय हो गया कि अब प्रति के मुझे अंगीकार कर लेने में संदेह नहीं है किंतु अभी तक उसके हृदय की धड़कन कम नहीं हुई थी, बस इसलिये पंडित जी के मुख से फैसला सुनने के लिये वह जिस समय आतुर थे। उसी समय पुष्कर के विमल सरीवर के तटवर्ती वृक्षों से, लता पल्लवों से और शुभ्र सुंदर भबने से आच्छादित कुंज में प्रवेश करते करते उन्होंने कहा---

“आज बहू के समस्त अपराध तीर्थगुरू के तट पर क्षमा कर दिए गए। परमेश्वर अपने अखंड अनुग्रह से इसे पतिपरायणता का आदर्श बनावे और इसके पुत्र हो और चिरंजीवी हो, यह मैंने आशीर्वाद भी हैं दिया परंतु शास्त्र की मर्यादा के लिये इसे पंचगव्य प्राशन और हेमाद्रिद स्नान