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पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१०३

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और कर देना चाहिए । कृच्छ चांद्रायण ब्रत यह अनेक कर ही चुकी । बस इतना करने के अनंतर हमारे पूर्वजों के श्राद्ध के लिये पाक संपन्न करने की यह अधिकारिणी है। इसलिये हमारी इच्छा है कि पहले इससे यह कार्य कराकर तब इसके हाथ से बनाए हुए पाक से हम श्राद्व करें ।"

पितृ तुल्य पंडित जी की आज्ञा सुखदा में माथे चढ़ाई । यद्यपि उसने अपने मुख से न "हाँ" कही और न ‘ना और ज्येषृ श्रेष्ठों के समक्ष वह कहती थी क्योंकर ! यहि परदेश न होता तो उनके समक्ष आने से भी क्या मतलब था ? किंतु उसके मुख के भाव से प्रियंवदा ने जान लिया कि “जो कुछ अज्ञा हुई है उसे सिर के बल करने को वह तैयार है ।"

पंडितजी की इच्छा थी कि सुखदा के प्रायश्चित्त करने का कार्य और उन्हें श्राद्ध कराने का काम इस बार गौड़बोले जी करे” । जब वह साथ ही इसके लिये थे तब उन्हें उछ भी क्या हो ? किंतु पुष्कर की सीमा में पैर रखते ही अन्यान्य तीर्थों की तरह यहाँ भी भूतों ने घेर लिया था । और और तीर्थों में तीर्थगुरुओं के मारे, भिखारियों के कष्ट से यात्री तंग आ जाता है, चाहे जैसा दृढ़-संकल्पी हो उसकी श्रद्धालुता की जड़ यदि उखड़कर न गिर जाय तो हिल अवश्य उठती है फिर पुष्कर सब तीर्थों का गुरू है । शिष्यों से गुरू में यदि कुछ अधिकता न हो तो वह गुरू ही कैसा ? मूर्ख निरक्षर पंडों के ठट्ठ से, भिखारियां की नोच खसोट से और लाव लाव की चिल्ला