पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/११०

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दोनों माँ-जाए बाई बहन हैं। केवल दोनों में यदि अंतर था तो इतना ही कि उसका पुरुष शरीर था और इसकी नारी देह । उसने केवल लॅबोढी बाँधकर अपनी लज्जा निवारण कर ली थी और इसे अपना शरीर ढाँकने के लिये दस हाथ' की साड़ी ओढ़नी पड़ी थी । साड़ो श्वेत नहीं, गेरुई नहीं, केवल भ्रम में रंगी हुई खाकी। दोनों के दर्शन करने पर विंचारवान् नर नारी अवश्य जान सकते थे कि शिव ब्रह्मादि को, नारदादि महर्षियों को नचानेवाले भगवान् पंचशायक का विश्वविमोहन वायु अभी तक इनके निकट नहीं पहुंचा है। दोनों के मुख पर भोलापन, शांति और विराग से अपना डेरा डाल रखा था। दोनों हलवाई की दुकान के सामने बैठे हुए बिना तकारी, बिना अचार, बिना दही पूरियाँ खाते जाते थे और जो सजन उन्हें फिर लेने के लिये मनुहार कर रहा था। उससे कहते जाते थे कि "बस अब नहीं ! अब कुछ नहीं चाहिए । बहुत हो गया । छुट्टी हुई ।" इनकी ऐसी निर्लोभता देखकर किसी ने पैसा दिया तो “नहीं," रुपया दिया तो "नहीं" और कपड़ा दिया तो "नहीं" । बस "नहीं" के सिवाय कुछ नहीं।

इन दोनों के सिर से पैर तक कई बार देखकर पंडित जी मोहित हो गए। कुछ इसलिए नहीं कि उनका रूप लावण्य उनके मन में समा गया हो किंतु पंडित जी के अंत:करण पर सचमुच ही उनका ऐसा प्रभाव पड़ा जैसा अभी तक किसी मनुष्य देहधारी का नहीं पड़ा था । इनकी आकृति, इनकी चेष्टा