पृष्ठ:आदर्श हिंदू ३.pdf/१११

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और इनके मुखों का मात्र स्पष्ट रूप से साक्षी दे रहा था कि इनका ब्रह्मचर्य अखंड है, काम-विकार अब तक इनके पडोस आकर नहीं फटकने पाए। इस घोर कलिकाल में ये बाते एक्कम असंभव हैं। भगवान् शंकराचार्य के अतिरिक्त अभी तक कलियुग में दुनिया के पर्दे पर कोई पैदा ही नहीं हुआ जिसने ब्रह्मचर्य के अनंतर गृहस्थाश्रम का, वानप्रस्थ का ग्रहन' ही न कर एकदम संन्यास ले लिया है।" पंडित जी के मन में ऐसे विचार होते ही उन्होंने इनके चरणों में प्रमाण करके पूछा---

"महाराज, यह भोग की बिरियां येाग ? असंभव को संभव ? अनुमान होता है कि पूर्व जन्म के शुभ संस्कार' हैं । तप का कोई भाग शेष रह गया है ।"

"नहीं पिता ! न हम तप जानते हैं और न योग । भगवान् की मर्जी । हमने जन्म लिया तब से इसके सिवाय कुछ देखा ही नहीं। जिस दशा में डाल दिया उसी में पड़े हैं और टुकड़े माँग खाते हैं । पिता की कभी सूरत देखना नसीब नहीं हुआ ! छप्पन के अकाल में माता अन्न बिना बिलबिला बिलबिलाकर मर गई । इस बहन का उसने केवल हमारा पेट भरने के लिये एक बूढ़े से विवाह करके साठ रुपए लिए थे, सो भी उसकी बीमारी में कोई बदमाश चुरा ले गया। . सत्तावन में ज्वर से पीड़ित होकर वह बूढ़ा भी चल बसा । एक साधु ने हमको पाला पोसा था सो महाराज भिक्षा न